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शुक्र नीति
शुक्र नीति
प्रकाशक :
मनोज पब्लिकेशन |
प्रकाशित वर्ष : 2001 |
पृष्ठ :367
मुखपृष्ठ :
पेपरबैक
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पुस्तक क्रमांक : 15333
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आईएसबीएन :9788181333384 |
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प्राचीन नीतिशास्त्र का एक प्रतिनिधि ग्रंथ
असुरों के गुरु हैं शुक्राचार्य। तब तक कोई सद्गुरु नहीं बने। सकता, जब तक वह नीतिवान् न हो। किसी भी व्यक्ति या समाज (सुर हों या असुर) की उन्नति का आधार होती है सुव्यवस्था और इसी का निर्माण करती है नीति। शुक्राचार्य की छत्रछाया में रहकर ही असुरों ने देवों को बार-बार परास्त किया। असुरों के पराजित होने को परोक्षरूप से आचार्य की नीतियों की अवज्ञा का ही प्रतिफल कहा जा सकता है।
क्या थी आचार्य द्वारा प्रतिपादित राजनीति, इसकी विशद् व्याख्या दी गयी है इस ग्रंथ में। आचार्य के व्यक्तित्व की दिव्यता का साक्षात् दर्शन होता है इस ग्रंथ के एक-एक श्लोक में।
आधुनिक मन इन प्राचीन ग्रंथों में वर्णित सिद्धांतों को भले ही यह कहकर नकारने का प्रयास करे कि व्यवस्थाएं बदल गयी हैं। इसलिए आज इन्हें लागू करना बुद्धिमानी न होगी, किन्तु नकार नहीं पाता है। बदलाव की प्रक्रिया तो सतत् चलती रहती है, नियमों या सिद्धांतों पर समयानुसार विचार करना, उन्हें लागू करना ही तो नीतिकारों का कार्य है और इसके लिए आवश्यकता होती है, गहरे स्वाध्याय और समग्र चिंतन की। इसी उद्देश्य से यह नीति ग्रंथ प्रस्तुत है। इससे असुराचार्य के प्रति पूर्वाग्रह तो टूटेगा ही साथ ही यह भी ज्ञात होगा कि उन्नति किसी की बपौती नहीं, उस पर सभी का बराबर अधिकार हुआ करता है।
-प्रकाशक
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